Sunday 1 February 2015

सत्यवादी हरीशचंद्र !

 

सत्यवादी हरीशचंद्र !

घटना कुछ पुरानी अवश्य है , बात सन 1997 के माह मई की है। रेलवे विभाग द्वारा उस समय रेलों के स्लीपर कोच में दिन के समय भी स्लीपर श्रेणी के टिकट वाले यात्री के यात्रा करने पर पाबन्दी लगा दी थी। एक दिन 12 मई 1997 को अचानक अति आवश्यक कार्य से मुझे अपने मूल निवास हल्द्वानी जिला नैनीताल जाना पड़ा।  चूँकि जाना तुरंत आवश्यक था, अतः दिन में पंजाब मेल से मैंने साधारण दर्जे का टिकट लेकर दिन में ही लखनऊ से मुरादाबाद तक यात्रा करने हेतु प्लेटफार्म पहुंचा। जैसा कि अक्सर होता है , भारतीय रेल में साधारण दर्जे के डिब्बे में यात्रा करना काफी दुष्कर कार्य होता है। रेल के साधारण डिब्बों में असाधारण भीड़ को देखकर मैं , उसमें यात्रा करने का साहस नहीं कर सका और मेरा जाना आवश्यक था , अतः रेल के स्लीपर कोच में घुस गया। सभी स्लीपर कोच के डिब्बे आपस में अंदर से (Inter Connected) एक दूसरे से जुड़े थे ,परन्तु दिन के समय कोच के आरक्षित यात्रियों  के अतिरिक्त काफी संख्या में अन्य यात्री भी, हर स्लीपर कोच में पहले से सीट पर बैठे थे। कोच के अंदर के रास्ते भी यात्रियों से भरे थे, किसी प्रकार से एक स्लीपर कोच में दरवाजे  के समीप वाले केबिन के बाहर पैर टिकाने को जगह मिल गई।  कुछ सकून मिला और मन ने कहा, धन्य हो भारतीय रेल। 
 जैसा कहा जाता है, कि भारतीय रेल में बिना टिकट यात्री भी अमूमन सफर करते हैं। इस पंजाब मेल में भी नजदीक के गन्तवय को जाने वाले प्रतिदिन के यात्री भी बिना टिकट बेखौफ यात्रा कर रहे थेकुछ समय बाद रेल के उस कोच में टी. टी. ई. महोदय यात्रियों के टिकट निरीक्षण को आते हैं, अधिकांश बिना टिकट के यात्री बिना लाग लपेट के सुविधा शुल्क अथवा घूस टी. टी. ई. महोदय को देते जा रहे थे। मेरा मन आशंका से भरा था, मेरे पास टिकट तो था, परन्तु स्लीपर कोच की बजाय साधारण कोच का था, जबकि यात्रा खड़े खड़े स्लीपर कोच में की जा रही थी। अचानक टी. टी. ई. महोदय मेरी ओर लपके, और टिकट दिखाने को कहा, जैसा कि मुझे अंदेशा था। उन्होंने कहा कि, आप साधारण कोच के टिकट से स्लीपर कोच में यात्रा कर रहे हैं, यह अपराध है, इसमें पेनाल्टी लगेगी।  अचानक अपराध बोध से ग्रस्त मन, पता नहीं कहाँ से जागृत हुआ, मैंने कहा गलती हो गई, पेनाल्टी कितने रूपए की होगी।मेरा ऐसा कहना था, कि टी. टी. ई. महोदय ने मेरा टिकट मुझे वापस करते हुए कहा कि, छियानबे रूपए (Rupees 96) की पेनाल्टी देने होगी। मैंने कहा कि, ठीक है, पेनाल्टी की रसीद काट दो। इतने में टी टी ई महोदय ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा और कहा अभी थोड़ी देर मैं आकर रसीद काटता हूँ, यह कहकर दूसरे यात्रियों के टिकट चेक करने के लिए दूसरे कोच में चले गये। जैसा की अक्सर होता है, सफर में कुछ सहयात्री इस घटना को सुन और देख रहे थे।  तभी मेरे साथ खड़े खड़े  यात्रा कर रहे तथा नजदीक के गंतवय को जाने वाले दो - तीन यात्रियों ने बिना मांगे सलाह  दे डाली कि, साहब टी. टी. ई. को सुविधा शुल्क बीस रूपए दे दो और इस मुसीबत से छुटकारा पाओ, ऐसा  सफर में हमारा रोज का काम है। मेरे सामने की सीटों पर बैठे दो-तीन यात्रियों ने भी ऐसी ही सलाह दे डाली, तो मैंने कहा ठीक है, मैं ऐसा ही करूंगा। 

लगभग बीस मिनट बाद टी. टी. ई. महोदय पुनः मेरे वाले कोच में आये और बोले क्या सोचा। तब तक मन और दिमाग ने तालमेल बना लिया था, मैंने तपाक  से कहा - छियानबे रूपए की पेनाल्टी काट दो।  वह बोले अरे बेकार परेशान क्यों हो रहे हो, कुछ दे दो ऐसे ही काम चल जायेगा। मैं और असाधारण जोश से बोला कि, पहली  गलती तो साधारण कोच के टिकट पर स्लीपर कोच में यात्रा करके कर चुका हूँ, दूसरी गलती आपको घूस देकर नहीं कर सकता, आप पेनाल्टी काटें।  अचानक भीड़ भरे माहौल के उस कोच के केबिन में एक उत्तेजना सभी यात्रियों में फ़ैल गयी, जो मुझे सुविधा शुल्क दे देने की सलाह दे रहे थे, वह भी चुप थे।

टी टी ई महोदय को कुछ सूझा नहीं, उन्होने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे रेल के अंदर ही अंदर आखिरी कोच में ले गये, जहाँ पर रेल के अन्य 4 -5 टी टी ई महोदय बैठे हुऐ थे।  मेरी  और देखकर अपने अन्य सहकर्मियों से कहा, मिलिये सत्यवादी   हरीशचंद्र से "मैं इनसे साधारण टिकट से स्लीपर कोच में यात्रा करने के कारण मात्र बीस रूपए मांग रहा हूँ, और ये कह रहे हैं, की घूस देकर दूसरी गलती नहीं करूँगा, छियानबे रूपए की रसीद काटो। " 

सभी टी टी ई महोदयों ने मेरे बारे में जानकारी ली, और कहा लगता है, कि आप वाक़ई ईमानदार हो।  आप अपने केबिन मैं वापस जाओ, हमें अहसास हो गया है, कि ईमानदारी अभी जिन्दा है, हम आपकी पहले गलती के लिए आपको माफ़ करते हुऐ आपकी पेनाल्टी नहीं काट रहे हैं।  बाद में, मैंने उन्हें बताया कि, मैं इस समय श्री नारायण दत्त तिवारी जी (तत्कालीन अध्यक्ष कांग्रेस तिवारी, पूर्व मुख्य्मंत्री उत्तर प्रदेश ) के निजी सहायक के रूप में कार्यरत हूँ, इस कारण कई बार रेल से लखनऊ-दिल्ली की यात्रा होती है, जो अक्सर श्री सतपाल महाराज (तत्कालीन रेल राज्य मंत्री, केंद्र सरकार और संसद कांग्रेस तिवारी ) के रेल मंत्री की हैसियत से उपलब्ध कराये गए पास से होती है।  मैंने टी टी ई महोदय को कुछ पुराने पास भी दिखाये।  लेकिन यह यात्रा मेरी व्यक्तिगत कार्य से है, अतः मैं टिकट लेकर यात्रा कर रहा हूँ।  तब सबने तंत्र के हिसाब से कहा, कि फिर पहले ही बता देते, तो इतनी परेशानी नहीं होती।  मैंने कहा, शायद मौके पर मैंने इसकी कोई ज़रूरत नहीं समझी।मन में एक गौरवपूर्ण अनुभूति लेकर मैं, अपने केबिन जहाँ पर खड़ा होकर यात्रा कर रहा था, वापस आया।  सभी सह यात्रियों की स्वाभाविक जिज्ञासा यह जानने की थी,कि मेरे साथ क्या हुआ। मैंने वृत्रांत सुनाया, तो सभी यात्रियों ने काफी सराहना की, उन्होंने भी, जो स्वयं भी बिना टिकट  रहे थे और मुझे सुविधा शुल्क देने की सलाह दे रहे थे।  केबिन में बैठे अन्य यात्रियों ने उस भीड़ भरे केबिन में येन -केन प्रकार से मेरे लिए भी बैठने की व्यवस्था बनाई, क्योंकि मैं उनके दिल में ईमानदारी भरी जगह बना चुका था।  इस प्रकार मेरा बाक़ी मुरादाबाद तक का सफर सीट पर बैठकर आराम से पूरा हुआ।  

मैंने शुरुआत में ही कहा कि, घटना पुरानी अवश्य है, लेकिन ईमानदारी आज भी हर क्षेत्र में ज़िंदा है।  परन्तु परिस्थितियाँ नहीं बदली, ज्यों की त्यों हैं।  या कह सकते हैं, कि पहले से बदतर हो गयी हैं। 

नवीन चन्द्र पनेरू

रविवार, 01 फरवरी,2015 
हल्द्वानी, नैनीताल

                                                                                     

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