Monday 19 September 2016

कागभुशंडि.....पितरों तक हमारे संदेशवाहक।



कागभुशंडि
श्राद्ध पक्ष या पितृपक्ष चल रहा है आजकल। हम में से अधिकांश को याद होगा कि पितृ पक्ष में जब मां पत्तल में खीर, पूरी, भात-दाल आदि व्यंजन परोस कर इधर उधर आह्वान करती तो कागभुशंडि अर्थात कौए दल-बल के साथ टूट पड़ते और प्रसाद ग्रहण करने के बाद किसी पेड़ की डाल पर बैठकर दो-चार बार कांव-कांव करते माना कृतज्ञता ज्ञापन कर रहे हों। हमें विश्वास होने लगता है कि वे हमारा कुशल-क्षेम पितरों तक पहुंचाने हेतु विदा मांग रहे हैं और देखते ही देखते वे उड़ जाते।
 एेसा कहा जाता है कि सुबह सुबह घर की मुंडेर पर कौए का बोलना शुभ होता है और परदेश गये किसी अपने का घर आगमन का सूचक होता है। लेकिन अब कहाॅ कागा ? अब तो इंटरनेट का जमाना है, मोबाईल क्रांति है, सोशियल मीडिया जैसे फेसबुक, वाट्सअप का दौर है.........परदेशी को तो जाने के समय से आने तक हर मिनट और हर घड़ी आगमन ही नहीं अपने कृत्यों की जानकारी भी पल पल घर में देनी होती है.........वरना शामत ही समझो...?

अपने बचपन की पाठशाला में कौएे की बुद्धि-चातुर्य की कहानी सुनी थी, गरमी का मौसम था सभी नदियां, तालाब आदि सूख गये थे। पानी की तलाश में कौआ इधर उधर उड़ रहा था। अचानक एक घड़ा उसे दिखाई दिया उसमें पानी तो था लेकिन बहुत नीचे तले में था उसकी चोंच उस पानी तक नहीं पहुंच पा रही थी। फिर उसने अपनी बु्द्धि का इस्तेमाल करते हुए आसपास पड़े कंकड़ पत्थरों को उस घड़े में डालना शुरु किया और कुछ ही देर में पानी घड़े में ऊपर आ गया और कौआ पानी पीकर परितृप्त हो गया।


अब मै बालक नहीं रहा, पिता हो गया। कल ही की बात है अपनी बिटिया की किताब देख रहा था तो ज्ञात हुआ कि कौए का पाठ अब बच्चों को नहीं पढ़ाया जाता, एेसी प्रेरणादायक कहानी से शिक्षा नीति के निर्धारकों को कोई मतलब नहीं रह गया। कौए की जगह आलू ने अवश्य ले ली है, जिसका स्वाद पाठकगण भी ले सकते हैं.........
काटा आलू
निकला भालू
या फिर कुछ इस प्रकार....
ककड़ी पर आई मकड़ी
ककड़ी ने कहा - भाग,
मकड़ी ने मारी लात
अफसोस है हमारे शिक्षाविदों पर जिन्होंने शिक्षा को प्रयोगशाला में तब्दील कर दिया है, परिवर्तन के नाम पर सबकुछ बदल डालने की झटपटाहट ? एेसी तुकबंदियों से भाषायी संस्कार या वैचारिक बुनियाद बन सकेगी ?
कल्पना शक्ति को भोथरा करने वाली एेसी पाठ्य सामग्री से सिर्फ कविता ही संकट में नहीं है, अपितु मानव जाति संकट में है। मनुष्य तो होगा पर नितांत एकांगी, अन्यमनस्क, मनहूस, स्वप्नविहीन और स्मृतिरहित।


मुझे कोई आश्वस्त करेगा कि ब्रह्म मुहूर्त का आभास कराने को हमारे घरों की मुंडेर पर कौए आयेंगे .....?